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शायद किसी रोज समझो तुम ...


शायद किसी रोज समझो तुम
वक्त बेवक्त जहन में चलते किसी के अहसास को
किसी को याद कर बदलते मुस्कान को
मेरी कविताओं में हर पल लिखे
किसी के बात को
मेरी चाहत है कि किसी रोज समझो तुम ||

वैसे तो तुम्हे पागल सा लगता हूँ
महसूस किये हर एक लम्हें को लिखते हुए
पर उम्मीद है
किसी रोज समझोगे तुम
बस दो पल में बुने हर लम्हें के दिल-ए-अहसास को ||

बातों ही बातों में हुई हर बात को
मेरे पागलपन के पीछे छिपे दिल-ए- आवाज को
छोटे छोटे टुकड़ो में लिखे
मेरे हर अल्फाज़ को
लिखता हूँ हर पल कि
शायद किसी रोज समझ सको तुम
हर शब्द में छिपे राज को ||

कभी सोचता हूँ, बयाँ कर दूँ लब्जों में
मेरी चाहत में छिपे हर शब्द के राज को
पर रोकता हूँ खुद को हर पल
इस इंतज़ार में,
शायद खुद किसी रोज समझो तुम ||

बस लिखते रहने चाहता हूँ
तुम्हारी नजरों में छपे एक पागल कवि के हर बात को
जो तुम्हें लगता, बस नयेपन में लिखता हर बात को
पर तुम्हें देखकर ही सीखा वो लिखना
अपने दिल के हर बात को
नही चाहता यूं ही बेपर्दा करना
दिल में छिपे हर ख्वाब को
क्योकि इस दिल को अब भी लगता
शायद किसी रोज समझो तुम ....



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