कुछ सपनें देखे थे मैंने सबके साथ होने की, आज़ाद होने की कदम से कदम मिला कर चलने की इस आजाद देश के खुले आसमान में बाहें पसार उड़ने की कुछ सपने देखे थे मैंने || इस अंधकारमयी दुनियां में मैंने खुद की ज्योति जलायी कुछ ऊँचे-नीचे मैदानों पर मैंने खुद का राह बनाया अपने नन्हे नन्हे पावों से मैंने खुद का सपना सजाया || अभी तो चलना शुरू ही किया था कुछ खिलते घर के चिरागों ने मरते दम तक मुझे बुझाया मैं जूझ रही थी, बिफर रही थी अपनी लूटते आबरू की आग में पल पल तड़प रही थी || कुछ अन्जाने इंसानों से चेहरे में मैं शैतानों से घिस रही थी अपने जिस्म पर जुड़ते खरोचों से मैं पल पल टूट रही थी चलते राह, चमकते चौराहों पर मैं घर की जलती ज्योति नकाबों से ढके बाज़ार में बुझ कर निर्भया बन चुकी थी || सुना है शायद नारों को काश! सुना होता मेरी चीत्कारों को मैं पल पल चीख रही थी मैं लाल गोश्त सी घायल पड़ी कुछ भूखे भेड़ियों की फ़ौज मुझपर टूट पड़ी थी | मैं घर की ज्योति चिथड़े बनकर सरे बाज़ार उनके हाथों बिक रही थी अपनी लाज उस रात गवाकर एक ज्योति निर्भया बन रही थी || मैं बुझ चुकी हूँ, बिखर चुक