Skip to main content

Posts

Showing posts from December, 2017

निर्भया की जलती ज्योति

कुछ सपनें देखे थे मैंने सबके साथ होने की, आज़ाद होने की कदम से कदम मिला कर चलने की इस आजाद देश के खुले आसमान में बाहें पसार उड़ने की कुछ सपने देखे थे मैंने ||  इस अंधकारमयी दुनियां में मैंने खुद की ज्योति जलायी कुछ ऊँचे-नीचे मैदानों पर मैंने खुद का राह बनाया अपने नन्हे नन्हे पावों से मैंने खुद का सपना सजाया || अभी तो चलना शुरू ही किया था कुछ खिलते घर के चिरागों ने मरते दम तक मुझे बुझाया मैं जूझ रही थी, बिफर रही थी अपनी लूटते आबरू की आग में पल पल तड़प रही थी || कुछ अन्जाने इंसानों से चेहरे में मैं शैतानों से घिस रही थी अपने जिस्म पर जुड़ते खरोचों से मैं पल पल टूट रही थी चलते राह, चमकते चौराहों पर मैं घर की जलती ज्योति नकाबों से ढके बाज़ार में बुझ कर निर्भया बन चुकी थी || सुना है शायद नारों को काश! सुना होता मेरी चीत्कारों को मैं पल पल चीख रही थी मैं लाल गोश्त सी घायल पड़ी कुछ भूखे भेड़ियों की फ़ौज मुझपर टूट पड़ी थी | मैं घर की ज्योति चिथड़े बनकर सरे बाज़ार उनके हाथों बिक रही थी अपनी लाज उस रात गवाकर एक ज्योति निर्भया बन रही थी || मैं बुझ चुकी हूँ, बिखर चुक

तेरे जुल्फ : कुछ बिखरे से कुछ सुलझे से ....

कुछ बिखरे से हैं , कुछ सुलझे से है एक दूसरे से दूर भी कुछ उलझे से है || मेरे नज़रों के सामने मेरे लब्ज भी कुछ सुलझे से है शायद तेरी खुश्बू में कुछ उलझे से है || तेरे बिखरे जुल्फों को देखकर मेरे एहसास तुझमें कुछ सुलझे ,मुझमें कुछ उलझे से है || ढ़लती शाम में तेरे जुल्फों पर खिडकियों से झाकती रौशनी मेरे ख्वाबों की तरह तुझपर बिखरकर  चमकते से है || तुम रुक रुक कर नजरें फेर रही तेरी तरफ बिसर रही मेरी चाहतो पर तेरे आने की आहट पर, मेरी नजरों के बजाय तेरी खुश्बू की तरफ खीचतें से है || पल दो पल बाद आज फिर कुछ पल हम पास होकर भी कुछ बिछड़े से है || मेरे ख्वाबों में तेरा साथ, तेरे साथ में मेरा अधूरा अहसास अब भी कुछ बिखरे से है, कुछ उलझे से है || तुम साथ हो मेरे करीब, दिल के करीब पर आज मेरे एहसास तेरी जुल्फों में बस उलझे से है ||

ऐसे न रहो !

ऐसे न रहो ! अबकी लौट जाओ तुम बार बार आए तुम पल दो पल ठहरकर फिर गुम हो गये तुम जब जब आए कुछ बदल कर आए कुछ छोड़कर तो कुछ अपनाकर आए पर अबकी तुम खुद को छोड़ कर आए || कोशिश तमाम की मैंने तुझे वापस पाने की खुद को खुद सा तुझे सौपने की बिखरे जज्बातों को समेटने की बिगड़े बातो को बनाने की तुझसे शिकायतों को भूल जाने की अपनी नादानी को सुलझाने की तुझसे किये वादों को निभाने की बीते लम्हों को वापस लाने की शायद ! अब तुझमें चाहत न रही मुझे अपनाने की || एक बार फिर तुम आए हो मेरी आहट पर नही तुम खुद में मुझे ढूढ़ते आए हो, कुछ मेरी चाहत में खुद की बेकरारी को ढूंढ लाए हो पर कुछ तो भूल आए हो || मैं पल पल रोकना चाहा नजरों से तुझे ओझल होने से तुम पल पल रोकती रही  मुझे टूटने पर मजबूर होने से अब जब तुम वापस आ चुके हो मुझे बदला हुआ सा बोलकर खुद बदल से गये हो या खुद को कहीं छोड़ आए हो || अपना रहा तुझे उलझे रिश्तों में तुम सुलझा रही मुझे नही बर्दाश्त हो रही तुम्हारें अहसासों की तपिश तुम्हारा बार बार आकर जाना पास न होकर भी खुद को महसूस कराना रहने दो खुद में ही उलझे मुझे नही सु

क्या देखते हो ?

क्या देखते हो तुम्हारी मुझसे दिल्लगी ? या मेरे आगोश में सिमटे अनगिनत अजनबी उगते दिन के साथ चहलती तुम्हारी आवारगी ? या ठण्ड रातों में पसरी मुझमें रौशनी चलते- ठहरते नजरों में टिकी तुम्हारी मसूका की गली ? या सरे आम चौराहों पर बिखरती मेरी बेबसी और क्या क्या देखते हो ? दिल हूँ तुम्हारे देश की मेरी मौजूदगी मात्र से तुम गर्व महसूस करते हो क्या अपनी ख़ुशी में कुछ मेरी भी फ़िक्र करते हो ? अपनी जरूरत पर कोषों दूर से मेरी राह चलते हो क्या मेरी हिफ़ाजत पर तुम खुद कुछ सोचते हो कुछ बेबाक होकर स्वीकारते हो तुम हमें क्या अपनी मौजूदगी से मुझमें पनपे आस को भी समझते हो || मेरी उपलब्धियों पर बड़ी बड़ी बाते करते हो खुली आखों से दिखती मेरी ख़ूबसूरती पर दिन-रात आहे भरते हो दिल से लेकर दुनिया तक मेरी तारीफ़े करते न थकते हो || ज़रा ठहरो कुछ पल देखो मुझे और करीब से कैसी ओझल सी हो गयी है तुम्हारी दिल्ली से दिल्लगी अपने बेपनाह प्यार और चाहत में बदल सा दिया है तुमने विचलित हो रही हूँ मैं खुले आसमान में भी बंद कमरों सी घूट रही हूँ मैं तुम्हारी जहन में घुलकर खुद मर रही हूँ मैं || ह

शायद अब समझ न पा रहे हो तुम

शायद अब समझ न पा रहे हो तुम  कुछ खुद में गुम से हो गये हो तुम  अपनी चाहत को बेआबरू कर  मुझकों झकझोर गये हो तुम || टूट चूका हूँ मैं  अपने रिश्तों की डगर में  उलझ सा गया हूँ मैं  जिंदगी के भवर में  बह चला हूँ मैं  अब न जाने किस अनजाने डगर पर || तुम किनारे खड़े बिखर रहे  मेरे तबाही के मंजर पर  मैं अब भी धुंधली आँखों से पढ़ रहा उफानों से परे तेरे चेहरे के सिकन को  शायद तुम अब भी न समझ पा रहे  उलझे भवर में बिखरे रिश्तों के कफ़न को || सम्भाल रहा, सुलझा रहा  तुम्हारे मन के वहम को  तुम समझ रहे कुछ बिसर रहे  पर मजबूर हो शायद तुम किसी के रहम पर  करो सवाल तुम  दर-बदर बदल रहे अपने दिल-ए-सफ़र पर  शायद तुम समझ सको  इस अनमोल रिश्तें के डगर को || रोकना चाहता हूँ  सम्भालना चाहता हूँ  इस उलझे रिश्तें के भवर को  मुझे बेजान देखकर  काश ! तुम याद कर पाते  अपने अरमानों पर बिसरे चाहतों के सफर को || आज भी खड़ा इंतजार कर रहा मैं  तेरे गुजरे बेड़ी  की डगर पर  पास होकर भी लगता तुम्हे  निकल चला हूँ मैं कही दूर ... शायद अब भी समझ न पा रहे हो