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Showing posts from 2020

मेरे अल्फ़ाज़ तुम्हें याद करते हैं....

मेरे अल्फ़ाज़ अक्सर तुम्हें याद करतें है जब भी कुछ लिखूं तो बस तुम्हारी ही बात करते हैं कई लम्हें जुड़े हैं तुमसे  कुछ एहसास बिखरे है मुझमें समेटने की कोशिश करता हूँ मैं शब्दों में जब इन्हें वो तुम्हारे चाहत तले अक्सर टूट जाया करते है अब मेरे जहन में तो हो तुम बस साथ न हो। मैं अब कोरे पन्नों पर अपने ज़ज़्बात नही उकेरता खाली पन्ने ही हर दिन कुछ बात कहते है तुम्हारा होना, न होना मुझे हर दिन बस एक ख्वाब सा लगा अब वही ख्वाबों के कतार किसी दिलचस्प किताब से लगते है और उनके कोरे पन्ने अब भी तुम्हें याद करते है हर किताब अब जैसे बस तुम्हारी बात करते हैं....।।

करना था क्या, क्या क्या किए जा रहे है...

करना था क्या  क्या क्या किए जा रहे है  निकले थे घर से एक मंजिल पाने  समाज के नजरों में कुछ बड़ा करने  माँ के उम्मीदों की लौ जलानी थी  बाबू जी के औदे को और ऊँचा उठाना था  सफ़र के साथ दिन ढलता गया  समय बदलता गया  वक्त ने कब करवट ली, पता भी न चला  कंधो पर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता गया  अब अपने ही सपनों के नीचे जैसे दबे जा रहे है || अब ख्व़ाब हर रोज बुनते है  पर आईने में खुद को देख जरूरती सामान सा सवरतें है  करते है हर रोज जद्दोजहद  खुद का बेहतर दाम लगाने की  किसी शाम कुछ पल खुद को शहंशाह सा भी समझते है  जरूरत फिर बढ़ती है जिम्मेदारी करवट बदलती है  फिर हम बुनते है एक ख्व़ाब  हो जाते है समझदार  उस पल बनना चाहते खुद से वफादार || अब बस बहुत हुआ  जो तय था अब हमें करना वही है  अगली सुबह हम फिर निकलते है  अपनी जरूरतों की तरफ तकते है जिम्मेदारियों का सामना करते है   एक बार फिर  करना था क्या  क्या क्या किए जा रहे है ......                                __ एक मिडिल क्लास आदमी

कुछ बातें करनी है..

कुछ बातें करनी है वो बातें जो मेरे अंदर दबी है मेरे अल्फ़ाज़ मेरे सामने बैठे है पर जुबां उन्हें नजरअंदाज कर रहा मेरे ज़ज़्बात कहते साथ हूँ हर पल पर दिल छिप-छिपकर मुझपर घाव कर रहा क़लम साथ छोड़ रही अब ख़ुद में ही खुद कुछ ख़्वाब बुन रही एक रोज़ उन यादों को खुरेद कुछ पल के लिए घाव भर लिए मैंने जब उन स्याह एहसासों से निकला कुछ पल को लगा कोई तो है जो सुन रहा है मुझे पर वह पन्ना अब भी कोरा है क़लम उंगलियों में जकड़ी है समय स्थिर पड़ा है अब ख्यालों से बस बात कर रहा हूँ मैं। वो बात जो मेरे अंदर बसी है।

ख़्वाब (भाग- एक)

सुबह सुबह भला ठंड में किसे उठने का मन करता, लेकिन काम और इश्क़ दोनों का नशा बड़ा ही ज़ालिम होता है। कमबख्त दर्द भी देता और एक बार इसमें डूब जाओ तो समय कैसे निकल जाता पता ही न लगता, फिर कभी इससे निकलना भी चाहो तो जिंदगी कुछ यूं उलझ गई होती है कि चाह कर भी ये आपका पीछा नही छोड़ती। बशर्ते जूनून का होना जरूरी है।  उस रोज धुंधली दिखती सड़को पर कुहासे को चीरते हुए सफ़र में आगे बढ़े जा रहा था, तभी बादल जैसी पसरी उन सफेद कुहासों के बीच उस चाँद का दीदार हुआ जो कुछ पल ख्वाब सी समझ आ रही थी। उस ख़्वाब ने ठीक मेरे बाजू की सीट में जगह ली, मानो उस पल मैं ख़ुद को खुली आसमान में चाँद तारों के साथ सफर पर निकल चला हूँ। कोशिश तमाम करता रहा एक नजर उस चाँद के दीदार की लेकिन मेरी हिम्मत ग्रहण बन बीच में बैठी थी, और मैं जलते सूरज सा उस चमकते चाँद के दीदार से वंचित रह जा रहा था। हालांकि और भी कई ग्रह थे जो उस चाँद को निहारे जा रहे थे, लेकिन चाँद ख़ुद में मशगूल सफर पर आगे बढ़ती रही। घर से काम को निकला यह सूरज, चाँद के चक्कर काटते एक मायाजाल में उलझ चुका था। इस सफ़र में अचानक एक रोज़ इस चाँद व सूरज की असंभव सी मुलाकत हुई, द

भूख सोने नही देती

भूख सोने नही देती पेट की भूख जीने नही देती । कुछ पाने की भूख जद्दोजहद कराती है सपनों की कतार जीवन जीने नही देती । जिस्म की भूख बेचैन करती है इंसान को इंसान होने नही देती । दौलत की भूख रिश्तों से दूर ले जाती है ये बेगानापन किसी का अपना होने नही देती । प्रसिद्धि की भूख नकली बनाती है खुद की आत्मा खुद की होने नही देती । इस कलम की भूख बहुत कुछ बताती है नज़र सच की स्याह दुनियां को समझने नही देती । ये भूख दुनियां को हर सुबह जीना सिखाती है खुद के दिल की आवाज खुद को सोने नही देती।।