एक भीड़ है जिसमें हर पल तुम अकेले हो जब जब सोचो तुम अपने मन की सब पृथक पृथक सा लगता है जब घुल मिल जाओ उस भरी भीड़ में सब बिखरा बिखरा लगता है हर किसी की जब नज़र पड़े तुमपर हर एक निगाह में तुम बहुतेरे हो पर जब कोई खुद से ढूंढे खुद को हर भीड़ में बस तुम अकेले हो भीड़ बढ़ी है पर नजर झुकी है तुम अपनी नजर उठा कर देखो अलग अलग चेहरों में लिपटी यह बेगानों की बस्ती है तुम उस चलती फिरती भीड़ में हो शायद इसलिए तुम अकेले हो टूट पड़ो तुम बिखर पड़ो उस भरी भीड़ से इतर चलो कण कण से राह बनाने को तय करो तुम खुद की मंजिल जब कभी तुम अकेले हो जब मंजिल होगी रास्ता होगा फर्क क्या पड़ता कि तुम अकेले हो कुछ ऐसा कर गुजरो सपना सबका हो, मंजिल अपना हो और उसे पाने वाले उस भीड़ में तुम अकेले हो ।