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Showing posts from October, 2018

तुम अकेले हो

एक भीड़ है जिसमें हर पल तुम अकेले हो जब जब सोचो तुम अपने मन की सब पृथक पृथक सा लगता है जब घुल मिल जाओ उस भरी भीड़ में सब बिखरा बिखरा लगता है हर किसी की जब नज़र पड़े तुमपर हर एक निगाह में तुम बहुतेरे हो पर जब कोई खुद से ढूंढे खुद को हर भीड़ में बस तुम अकेले हो भीड़ बढ़ी है पर नजर झुकी है तुम अपनी नजर उठा कर देखो अलग अलग चेहरों में लिपटी यह बेगानों की बस्ती है तुम उस चलती फिरती भीड़ में हो शायद इसलिए तुम अकेले हो टूट पड़ो तुम बिखर पड़ो उस भरी भीड़ से इतर चलो कण कण से राह बनाने को तय करो तुम खुद की मंजिल जब कभी तुम अकेले हो जब मंजिल होगी रास्ता होगा फर्क क्या पड़ता कि तुम अकेले हो कुछ ऐसा कर गुजरो सपना सबका हो, मंजिल अपना हो और उसे पाने वाले उस भीड़ में तुम अकेले हो ।