दिल्ली से किसी रोज़ गुज़रा एहसासों के एक दौर से निकला उन एहसासों को शब्दों में पिरोना क्या शुरू किया ये दिल भी उनका दीवाना हो उठा सफ़र शहर दर शहर बढ़ता गया इन शब्दों के माया जाल में लोग भी उलझते गए दरकार तो इस बात की रही इन शब्दो की दिल्लगी पर दिल तो सभी को आया पर इनके दरवाजों से झाक छिपे दिलबर तक न पहुँच पाए फिर याद आया शहर दिल तो वही, पर दिल्लगी न हुई