Skip to main content

Posts

Showing posts from 2019

सोशल मीडिया पर ठिठुरता सामाजिक जीवन

आज सोशल मीडिया आम से लेकर ख़ास व्यक्ति के जीवन का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है| ख़ास लोगो की जमात जहां अक्सर ट्वीट करते नजर आती है, वही हमारे समाज के आम लोगो का एक धडा फेसबुक व व्हाट्सएप पर अपनी दुनिया बसाए हुए है| सोशल मीडिया जहां लोगो को एक दूसरे से जोड़ने और सन्देश को सांझा करने में सहयोगी है, वही समकालीन परिदृश्य में यह उपयोगकर्ता के साथ साथ समाज के लिए घातक भी साबित हो रहा है| प्रायः हम पाते है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा किसी मुद्दे पर चर्चा के दौरान जो तथ्य प्रस्तुत करता है या यू कह ले कि उसे ही सच होने का दावा ठोकता है, वह कही न कही सोशल मीडिया से उपजी ज्ञान होती है| ख़ास तौर पर आधुनिक पीढ़ी किताबों व प्रमाणित तथ्यों को पढ़ने के बजाय सोशल मीडिया से उठे मुद्दे व दूसरो के आकड़ो व विचारों से अपना नजरिया तैयार कर ले रहा है| जो कि समाज में फैलती अराजकता व अफवाह का भी एक मुख्य कारण रहा है| फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे तमाम माध्यमों पर सभी को अपने अपने विचार व्यक्त करें की आज़ादी है लेकिन मौजूदा परिदृश्य में सोशल मीडिया भी टीवी समाचार चैनलों की भाति रणभूमि बन चुकी है| सोशल मीडिया पर आज हम उपयोगकर्ता उप
कुछ तो वज़ह थी सफ़र का ही हमसफ़र बन जाना कुछ पल पास रहकर कहीं दूर सा निकल जाना लौट कर तुझ तक वापस आना यूं तो न था हाँ, तुम कुछ अलग हो कुछ बंदिशे भी है हमारे दरमियां पर कुछ बात है, एहसास है जिन्हें मैं कभी बतला न सका कुछ तो वज़ह थी कोई उम्मीद व आस नही है बस हर रोज़ कुछ जताना चाहता हूँ कई छिपे बात बताना चाहता हूँ सहसा तुम्हारे पास होने पर भूल सा जाता हूँ शायद, कोई हक जताना चाहता हूँ अच्छी लगती है तुमसे नजरों की नजदीकियां मेरे ख्वाबों में खेलती मनमर्जियाँ हाँ, इन्हें इश्क़ न समझना मुझे कोई आशिक़ न समझना मैं एक एहसास हूँ अपने जहन में उठती ज़ज़्बात हूँ कई राज दफ़्न कर रखें है मैंने अब हर रोज मैं खुद से गुफ्तगू करता हूँ कई दफ़ा तुझसे नजरें चुराई उस दफ़्न राज की पहचान मिटाई पर खुद को समझा न सका आज अपने अल्फ़ाज़ समझाना चाहता हूँ दरअसल, तुम्हारा मुस्कुराना अच्छा लगता है मुस्कुराते देख मुझे ख़ुद को सम्भालना अच्छा लगता है कभी कहना न था, पर इतना कुछ कह गया दरअसल, तुम्हारी मुस्कुराहट ही वह वजह थी।। बात और कुछ नही, बस तुम्हारी मुस्कुराहट यूं ही देखते रहना चाहता हूँ।।

पहचान किस काम की

जब ज़माना हमें जान ले तो पहचान किस काम की जब इज़्ज़त हो पद नाम की शोहरत हो बस आज की अपनों में हम बदले से हो फिर ग़ैरों में हम ख़ास बने वो पहचान ही किस काम की ।। चाहत है लोग बुलाए उस नाम से जब गलियों में हम बदनाम थे चर्चे हो उन पागलपन के जब मंज़िल के हम पास न थे मुकाम नयी हो पर किस्से पुराने चेहरों की बस पहचान न हो ।। ऐसी है कुछ पहचान बनानी महफ़िल मंजिल के नाम सजी हो चर्चे हो बदनामी के हम मशहूर पड़े हो नजरों में पर बातें हो बस गुमनामी की ।।

तेरे हुस्न का आशियाना

राह बनानी थी एक आशियाना सजाना था ख़्वाब तो बहुत थे मेरे पर मुझे तो बस उन सपनों से टकराना था भला मुझे क्या पड़ी थी उस मुकाम की जहां पहुँचना मुक्कमल न हो ख़्वाब थी मिलने की सपने थे तुझे पाने की महल तो तेरे हुस्न का सजाना था फिर मंजिल की किसे पड़ी आशियाना तो बस एक बहाना था मुझे तो उस राह पर तुझसे टकराना था तेरी मुस्कान को देख अदाओं पर बिखर जाना था जब तू अदाओं पर गुमान करे बस उससे फ़िसलकर इस दिल मे जगह बनाना था ।।

गुफ़्तगू

उम्मीद न थी किसी रोज़ यूँ गुफ्तगू होगी तुमने कुछ कहा नही मैंने कुछ सुना नही मेरे कुछ जज़्बात है जिनका तुम्हें एतबार नही पर हुई गुफ़्तगू इशारों में तस्वीरों से झाँकती लब्जों को छिपाती नैन नजारों से अंजान थे पर इंसान थे भाव भी है एहसास भी है पर कुछ रिश्तों की दरकार भी है कुछ तो था उस पल जब शब्दों की बौछार कर मेरी पंक्तियों में बस गए न जाने क्यों हम सोच अब भी रहे गुफ़्तगू अब भी जारी है ...

तुम्हारा_नालायक_बेटा

हां, जायज़ था मुझसे, तुम्हारा नाराज़ होना ख़ुद के लिए नही दूसरों के लिए परेशान होना हां, मेरे ख़ुद के न होने का मतलब 'दूसरा' ही समझ आता था मुझे रिश्तों की क़दर कर सही और ग़लत की समझ के साथ लोगों को अपना बनाना सिखाया तुमने जो मेरी नज़र में परेशानी थी उसे जिम्मेदारी बताया तुमने सुबह की पहली किरण से रात के चमकते चाँद तक बात बात में फ़टकार लगाया तुमने तमाम ऐसी बातें थी जिसका मतलब समझाया तुमने मैं समझ न सका था उस रोज़ दरअसल हर डॉट में भी बस प्यार जताया तुमने माँ, अब नाश्तें, खाने और उन गंदे कपड़ों की बात न करूँगा मैं अब हर बात भी न बोल पाता मैं क्योंकि अब सुनते सभी बस कोई समझ न पाता मुझे समझता था, परिवार से इतर भी एक जहाँ है और इस अनोखी दुनियां में पाया भी मैंने पर अब भी जब किसी रोज़ थक कर बिन खाए सो जाता हूँ मैं तो ग्लास से भरा दूध और बालों की मालिश याद करता हूँ मैं हां, बड़ा तो हो चुका हूँ मैं जो अब तुम भी मुझे जताती हो पर बहुत छोटा महसूस करता हूँ मैं जब अपनी ज़रूरत पर भी मुझे देख, तुम चुप रहती और फिर भी शायद मैं समझ न पाता तुम्हें मिली हर आज़ादी जिसक
ठहर सा गया हूँ मैं सफ़र अब भी ज़ारी है तुम आए और निकल भी गए शायद पहचान न पाए मुझे मैं अब भी उसी राह पर पड़ा हूँ पहले नजरों के सामने खड़ा था अब तेरे कदमों तले बिखरा पड़ा हूँ मैं #तेरे_बिन_तेरे_बाद
कुछ चीजे अनकही सी ही अच्छी लगती है, कुछ अनसुलझी सी अच्छी लगती है | कोशिशे तमाम कर लो उन्हें समझाने और सुलझाने की, लेकिन न चाहते हुए भी कुछ उलझी सी ही अच्छी लगती है | ख्वाब तो हजारों सजा लिए हमने तुम्हे देखते हुए, लेकिनअब नजरों से दूर, इन अहसासों में तुम्हारी मौजूदगी भी अच्छी लगती है | कुछ रिश्तें बेनाम होते है यूँ तो लोगो के लिए आम,  पर खुद के लिए बेहद खास होते है छोटी छोटी बाते, कुछ पल की मुलाकातें लोगों से नही खुद से करते थे हम जिक्र हमारा किसी रोज़ तुम जब रूठती थी, फिर कुछ पल खुद से लड़ती थी, जताता नही था, पर मैं भी करता था फ़िक्र तुम्हारा छोटे छोटे लम्हों को समेटे एक दौर सा बीत गया तुम पास रहे या दूर उन छोटी छोटी बातों से एक एहसास जुड़ता गया एक एहसास, जो इस जहां से परे हमारी हुई उन बातों में ख्वाबों सा जगह कर गया तेरे रूठने से मेरे मनाने तक का वह दौर हर पल तमाम कहानियां गढ़ता गया जिसमें हम कभी लड़े, शिकवा और शिकायतें भी रही बस कम न हुई तो नजदीकियां तुम किसी ढ़लती शाम सी बिखरती जरूर थी पर अगली सुबह मिलने की आस भी रही हर रोज़ तुम्हारा आना जाना लगा रहा तेरी यादें भ
उनकी अदाओं ने मचा रखी थी कुछ अलग सी तबाही सबको लगा माह है सावन का, दिख रही हरियाली मैंने लिखा था अपने एहसास और जज़्बातों को खुद कलम बन, जिसकी थी वो सफ़ेद स्याही शायद कभी वो देख न सकी, उन्होंने आज उभरे पन्नो को पढ़ बोला तुम क्या खूब लिखते हो तबाही #बनारस_दिल्ली_इश्क़
वो झुकी नजरें कुछ बिखरी सी जुल्फें बदल गयी उस एक नजऱ को जो उसे कब से निहारे जा रही थी वो कुछ छोटी छोटी बातों में उलझी थी ये दिल कुछ पल भर की मुलाक़ात की उम्मीद किए एक बड़ी गुप्तगू फ़िराक में था नजऱ से नजऱ मिलती रही वो इस नजऱ को देख खुद की पलकों में छिपती रही वो कुछ क़दम दूर खड़े नज़रो के सहारे ही सही हौले हौले दिल के करीब आते गए #टुरी_पर_नज़र 😉

पुलवामा

तुम करो तमाशा, मैं देख रहा हर नारेबाज़ी समझ रहा तुम खुली आसमां में चिल्ला रहे हो मैं इस बन्द तख़्त में सिमट रहा बैनर, पोस्टर और मोमबत्तियों से मुझकों तुम भुना रहे, सोशल मीडिया और गालियों से क्रांति तुम फैला रहे अरे ठहर ज़रा, बस शांत बैठ तू एक क़दम बढ़ा तू उस घर पे जहाँ एक बूढ़ा बैठा ठिठक रहा बेटा माँ से लिपट रहा उस बूढ़ी माँ के आँसू पोछो कुछ करना है तो उसे गले लगा मुझ जैसे और लाखों थे जो भारत माँ की बलि चढ़े क्या बदलेगा तू इन सब से धर्म, जाति या अपना खुदा कुछ तो अपनी अक़्ल लगा तू देख अब भी मेरी चिता पर कोई अपनी रोटी सेक रहा ।। #पुलवामा_शहीद   #नमन Arun kr jaiswal

इश्क़ ए लफ्फाज़ी (भाग 6)

यूं तो सफ़र एक शहर से दूसरे शहर चलता रहा, मौसम बदलता रहा, बदलते मौसम के साथ नए लोग मिलते गए , लोगो के साथ मिज़ाज़ बदलता गया, इस बदले मिज़ाज़ में अल्फ़ाज़ भी जुड़ते गए। अल्फ़ाज़ यूं ही नही जुड़े, इन एहसासों की एक लंबी कतार थी, वही कतार जिनमें उनकी चाहत पर फिसलने वालो की कमी न थी, और हम उनमें कहीं खड़े होने भर की जगह तलाश रहे थे । जगह बनाने की जद्दोजहद में समय बीतता गया, अपने अल्फ़ाज़ के साथ साथ एहसास भी गहराते गए और वो हौले हौले ही सही पर कुछ करीब आने लगे । हवा के झोंके सा कुछ ही पल में उनका बुखार सर चढ़ गया, और प्रेम की बारिश लिए मौसम बदला और ठंड में उनके एहसासों की गर्माहट लिए सफर माह ए मोहब्बत क पहुँच चुका था। यह मोहब्बत का महीना यूं तो सबके लिए बेहद ख़ास रहा, सबको अपनी अपनी मोहब्बत जताने की जैसे रेस लगी थी, वैसे देखा जाय तो मोहब्बत के लिए किसी खास दिन, समय या महीने का होना बिल्कुल आवश्यक नही लेकिन जो नए नए मोहब्बत का बुखार जो होता, कहाँ अब इस वैलेंटाइन वीक के गोली के बिना सही होने वाली होती । अब इस वैलेंटाइन वीक के भी कुछ छः सात वार थे, जिनमे टेडी डे, चॉकलेट डे, रोज़ डे सहित प्रोपोज़ल डे भी खास थे
दिल्ली से किसी रोज़ गुज़रा एहसासों के एक दौर से निकला उन एहसासों को शब्दों में पिरोना क्या शुरू किया ये दिल भी उनका दीवाना हो उठा सफ़र शहर दर शहर बढ़ता गया इन शब्दों के माया जाल में लोग भी उलझते गए दरकार तो इस बात की रही इन शब्दो की दिल्लगी पर दिल तो सभी को आया पर इनके दरवाजों से झाक छिपे दिलबर तक न पहुँच पाए फिर याद आया शहर दिल तो वही, पर दिल्लगी न हुई 
ख़ामोश हूँ इस चहल पहल में बसा कुछ यादों के भीड़ में खड़ा बस खामोश हूँ। देख रहा हूँ तुम्हारे चेहरे के बदलते इन रंगों को पढ़ रहा हूँ जीवन के बदलते हर ढंग को कैसे तुम कुछ लम्हों में आकर सदियों सी छाप छोड़ गए दरअसल खुद की परछाई में अब भी तुमको समझ रहा हूँ ।। शायद समझ चुका हूँ या समझने की कोशिश कर रहा हूँ पर तुम निकल चुके हो बदल चुके हो मैं अब भी आसमां सी खुली इस जीवन मे गुज़रे लम्हों की कहानियों को सुन रहा हूँ पर खामोश हूँ । ख़ामोश हूँ क्योंकि इस बदलतें वक़्त के साथ तुम्हें बदला हुआ देखकर अब भी मैं, खुद को नही बदलना चाहता क्योकिं अब भी मैं वही हूँ बस ख़ामोश हूँ ।।