जब कभी भी तुम्हे देखता हूँ
बस देखते रहना चाहता हूँ तुम्हे
तुम किसी अनजान बाग़ की कली सी हो
जिसे अपने बगिया में खिलते देखने की चाहत है
लेकिन बेगानी खुश्बू में जीने का साहस भी नही है मुझमे||
तुम खिलती कली सी अक्सर सुबह सुबह की छटाओं में रंग बिखेरा करती
उन रंगों में अक्सर अपने ख्वाबो की बगिया को देखा करता मैं
दूर से देखी गयी तुम्हारी वो खिलती हँसी अक्सर याद आया करती
जब कभी भी करीब से गुजरते हुए तुम्हारी एक मुस्कराहट को देखता मैं ||
उन रंगों में अक्सर अपने ख्वाबो की बगिया को देखा करता मैं
दूर से देखी गयी तुम्हारी वो खिलती हँसी अक्सर याद आया करती
जब कभी भी करीब से गुजरते हुए तुम्हारी एक मुस्कराहट को देखता मैं ||
कभी निकलना चाहता हूँ मैं तुम्हारे बिखरे जुल्फों के छाया से
लेकिन एक बार फिर ढलते शाम की डर से, उनमें अपने जज्बातों को समेत लिया करता मैं ||
लेकिन एक बार फिर ढलते शाम की डर से, उनमें अपने जज्बातों को समेत लिया करता मैं ||
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