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क्या देखते हो ?

क्या देखते हो
तुम्हारी मुझसे दिल्लगी ? या
मेरे आगोश में सिमटे अनगिनत अजनबी
उगते दिन के साथ चहलती तुम्हारी आवारगी ? या
ठण्ड रातों में पसरी मुझमें रौशनी
चलते- ठहरते नजरों में टिकी तुम्हारी मसूका की गली ? या
सरे आम चौराहों पर बिखरती मेरी बेबसी
और क्या क्या देखते हो ?

दिल हूँ तुम्हारे देश की
मेरी मौजूदगी मात्र से
तुम गर्व महसूस करते हो
क्या अपनी ख़ुशी में
कुछ मेरी भी फ़िक्र करते हो ?

अपनी जरूरत पर
कोषों दूर से मेरी राह चलते हो
क्या मेरी हिफ़ाजत पर
तुम खुद कुछ सोचते हो
कुछ बेबाक होकर स्वीकारते हो तुम हमें
क्या अपनी मौजूदगी से
मुझमें पनपे आस को भी समझते हो ||

मेरी उपलब्धियों पर
बड़ी बड़ी बाते करते हो
खुली आखों से दिखती मेरी ख़ूबसूरती पर
दिन-रात आहे भरते हो
दिल से लेकर दुनिया तक
मेरी तारीफ़े करते न थकते हो ||

ज़रा ठहरो कुछ पल
देखो मुझे और करीब से
कैसी ओझल सी हो गयी है
तुम्हारी दिल्ली से दिल्लगी
अपने बेपनाह प्यार और चाहत में
बदल सा दिया है तुमने
विचलित हो रही हूँ मैं
खुले आसमान में भी
बंद कमरों सी घूट रही हूँ मैं
तुम्हारी जहन में घुलकर
खुद मर रही हूँ मैं ||

हाँ ! खुले फिजाओं
बहती हवाओं में
कुछ दफ़न सी हो चुकी हूँ मैं
ऐसे क्या देखते हो ?
मैं हूँ तुम्हारी ही दिल्ली ||


#तुम्हारी_प्रदूषित_दिल्ली 


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