कुछ खुद में गुम से हो गये हो तुम
अपनी चाहत को बेआबरू कर
मुझकों झकझोर गये हो तुम ||
टूट चूका हूँ मैं
अपने रिश्तों की डगर में
उलझ सा गया हूँ मैं
जिंदगी के भवर में
बह चला हूँ मैं
अब न जाने किस अनजाने डगर पर ||
तुम किनारे खड़े बिखर रहे
मेरे तबाही के मंजर पर
मैं अब भी धुंधली आँखों से पढ़ रहा
उफानों से परे तेरे चेहरे के सिकन को
शायद तुम अब भी न समझ पा रहे
उलझे भवर में बिखरे रिश्तों के कफ़न को ||
सम्भाल रहा, सुलझा रहा
तुम्हारे मन के वहम को
तुम समझ रहे कुछ बिसर रहे
पर मजबूर हो शायद तुम किसी के रहम पर
करो सवाल तुम
दर-बदर बदल रहे अपने दिल-ए-सफ़र पर
शायद तुम समझ सको
इस अनमोल रिश्तें के डगर को ||
रोकना चाहता हूँ
सम्भालना चाहता हूँ
इस उलझे रिश्तें के भवर को
मुझे बेजान देखकर
काश ! तुम याद कर पाते
अपने अरमानों पर बिसरे चाहतों के सफर को ||
आज भी खड़ा इंतजार कर रहा मैं
तेरे गुजरे बेड़ी की डगर पर
पास होकर भी लगता तुम्हे
निकल चला हूँ मैं कही दूर ...
शायद अब भी समझ न पा रहे हो तुम ||
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