करना था क्या
क्या क्या किए जा रहे है
निकले थे घर से एक मंजिल पाने
समाज के नजरों में कुछ बड़ा करने
माँ के उम्मीदों की लौ जलानी थी
बाबू जी के औदे को और ऊँचा उठाना था
सफ़र के साथ दिन ढलता गया
समय बदलता गया
वक्त ने कब करवट ली, पता भी न चला
कंधो पर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता गया
अब अपने ही सपनों के नीचे जैसे दबे जा रहे है ||
अब ख्व़ाब हर रोज बुनते है
पर आईने में खुद को देख जरूरती सामान सा सवरतें है
करते है हर रोज जद्दोजहद
खुद का बेहतर दाम लगाने की
किसी शाम कुछ पल खुद को शहंशाह सा भी समझते है
जरूरत फिर बढ़ती है
जिम्मेदारी करवट बदलती है
फिर हम बुनते है एक ख्व़ाब
हो जाते है समझदार
उस पल बनना चाहते खुद से वफादार ||
अब बस बहुत हुआ
जो तय था अब हमें करना वही है
अगली सुबह हम फिर निकलते है
अपनी जरूरतों की तरफ तकते है
जिम्मेदारियों का सामना करते है
एक बार फिर करना था क्या
क्या क्या किए जा रहे है ......
__ एक मिडिल क्लास आदमी
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