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ख़्वाब (भाग- एक)

सुबह सुबह भला ठंड में किसे उठने का मन करता, लेकिन काम और इश्क़ दोनों का नशा बड़ा ही ज़ालिम होता है। कमबख्त दर्द भी देता और एक बार इसमें डूब जाओ तो समय कैसे निकल जाता पता ही न लगता, फिर कभी इससे निकलना भी चाहो तो जिंदगी कुछ यूं उलझ गई होती है कि चाह कर भी ये आपका पीछा नही छोड़ती। बशर्ते जूनून का होना जरूरी है। 
उस रोज धुंधली दिखती सड़को पर कुहासे को चीरते हुए सफ़र में आगे बढ़े जा रहा था, तभी बादल जैसी पसरी उन सफेद कुहासों के बीच उस चाँद का दीदार हुआ जो कुछ पल ख्वाब सी समझ आ रही थी। उस ख़्वाब ने ठीक मेरे बाजू की सीट में जगह ली, मानो उस पल मैं ख़ुद को खुली आसमान में चाँद तारों के साथ सफर पर निकल चला हूँ। कोशिश तमाम करता रहा एक नजर उस चाँद के दीदार की लेकिन मेरी हिम्मत ग्रहण बन बीच में बैठी थी, और मैं जलते सूरज सा उस चमकते चाँद के दीदार से वंचित रह जा रहा था। हालांकि और भी कई ग्रह थे जो उस चाँद को निहारे जा रहे थे, लेकिन चाँद ख़ुद में मशगूल सफर पर आगे बढ़ती रही।
घर से काम को निकला यह सूरज, चाँद के चक्कर काटते एक मायाजाल में उलझ चुका था। इस सफ़र में अचानक एक रोज़ इस चाँद व सूरज की असंभव सी मुलाकत हुई, दूसरे ग्रहों का साया न था, ऐसे में...सफ़र की इस दूरी पर कुछ बात हुई, कुछ यादों की शुरुआत हुई और फ़िर हम दोनों बढ़ते गए। 
चक्कर हम एक दूसरे का काट रहे थे, लेकिन कब दूरियां बढ़ी पता ही न चला, फिर मौसम बदलने लगा, कुहासे छटने लगे, अब चाँद साफ़ नज़र आने लगा था। अब  नंगी आखों से चाँद व सूरज साफ साफ दिखने लगे थे, चाँद छिपने लगी थी, महीना बीत चुका था और यूँ इस सफर में एक रोज चाँद ग़ायब हो गयी और मानो मैं अंधेरे की आगोश में समा चुका था।
अगले रोज़ चाँद फिर दिखी, मानो उसे मेरी तपिश बर्दाश्त न हो रही थी और उसने कहा "ख़्वाब न देखो" हमारा कोई मेल है भला। 
अब आज भी उनका दीदार एक शाम सी है, जब दोनों दो छोर पर होते है।

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