Skip to main content

किताबों पर कवर औऱ फैशन

नए सत्र के लिए स्कूलों में प्रवेश प्रारम्भ हो चुके हैं, बच्चें एक बार फिर नई कॉपी, क़िताब और क्लास को लेकर उत्सुक हैं, वहीं गार्जियन इनके ख़र्चों के तले दबते जा रहें..लेकिन उनके लिए यह भी इतना ही जरूरी बन गया है, जितना कि घर में दो टाइम के सामान्य भोजन के लिए  राशन का होना।
अब किताब के साथ साथ कॉपी और ड्रेस तक अधिकतर स्कूलों ने वहीं से लेना अनिवार्य कर दिया है.. आज से कुछ 15 साल पहले तक स्कूलों के यूनिफॉर्म के साथ कॉपी व किताबों के कवर तक के मानक तय थे कि कैसा दिखना चाहिए, नही तो जमकर मार पड़ती थी। कहीं फैशन में चुस्त दुरुस्त यानी एकदम फिटिंग वाला पैंट बनवा लिए, या अजय देवगन स्टाइल में बाल रख लिए तो मास्टर साहब बबरी कबार के कूटते थे। लेकिन अब स्कूलों में ड्रेसिंग सेंस, लिविंग स्टाइल से लेकर किताबों के   फैशन तक बदल गए हैं।
बच्चों में नए सत्र के साथ एक विशेष प्रकार का शौक़ और खुशी होता था...अपने किताबों को सजाने की, जिसके लिए कभी कार्बन पेपर सबसे सस्ता व बेहतर ऑप्शन होता था हमारे लिए, उस खर्चे से भी बचने के लिए अख़बार सहारा होता था, ऐसे फ़िल्म या फैशन विशेषांक वाले पन्नो को अधिक तवज्जों दी जाती थी। और एकदम क्लासी टाइप लोग फ़ोटो में दिख रहे नारंगी कवर का प्रयोग करते थे, जो लगभग 7 से 10 रुपये में आता था और 6 किताबों को कवर कर पाता था। इसके बाद ऊपर से एक से एक डिजाइन वाला स्टीकर। कॉपी किताब आने के बाद उनपर कवर चढ़ाना एक बड़ा काम होता था, जिस पर घरवालों का भी विशेष ध्यान होता था।  हां, कवर पर नेम स्टीकर सेंटर में सीधा लगेगा कि ऊपर और थोड़ा टेढ़ा यह भी बहुत रोचक मुद्दा हुआ करता था।
अब कॉपी किताबों को सजाने का वह उत्साह, फ़ैशन और उनसे प्रेम ख़त्म होता जा रहा है...हो भी क्यों न?आज नर्सरी तक के बच्चें जब इलेक्ट्रॉनिक गैज़ेट पर निर्भर हैं...तो किताबों की महत्ता और उनसे प्रेम, लगाव को भला कहां तक समझाया और समझा जा सकता है।
ख़ैर एक बार फिर क़िताबों, बस्तों यानी बैग और स्कूलों के चयन की जद्दोजहद में देश की आम जनता परेशान है....

Comments

Popular posts from this blog

इश्क़-ए-लफ्फाज़ी (भाग-1)

अनेक कविताओं और कहानियों का संस्मरण करते हुए, आज यह धडकता दिल बहुत परेशान था | शायद कुछ कहना चाहता था, या खुद को समझाना चाहता था | दरअसल यह बेचैनी किसी चीज की नही थी बल्कि उसे, उसमें समाहित प्रेम ने विचलित कर रखा था | प्रेम कभी भी किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान या खुद से हो सकता है | प्रेम हमारे जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है | जब आप किसी के साथ प्रेम में होते हैं तो यह आपके जीवन के सबसे ख़ूबसूरत लम्हों और एहसासों में से एक होता या यूं कह लें कि इसका स्थान सर्वोच्च होता है | यदि प्रेम का ताल्लुक किसी व्यक्ति विशेष से हो तो इसका तात्पर्य यह बिलकुल नही कि उसे हासिल किया जाय | उस व्यक्ति से आपके दिल से लगाव और उसके प्रति अटूट विश्वास व गहनता ही प्रेम का प्रतीक है | जब आप उसके छोटे-छोटे लम्हों में खुश होना सीख जाते है, उसके साथ कुछ पल बिताने व अपने नज़रों के सामने देखने भर से अन्दर ही अन्दर प्रफुल्लित होते है, सुकून महसूस करते हैं | यही प्रेम को जीने और महसूस करने का दौर होता है | जब आपको उस व्यक्ति से लगाव हो जाता है तो आप उसकी देखभाल व उसके प्रति अपने एहसासों व भावनाओं...

वैश्वीकरण के दौर में हिंदी

वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप दुनिया की तमाम भाषाओं की भांति हिंदी के स्वरूप, क्षेत्र एवं प्रकृति में बदलाव आया है, प्रसार में वृद्धि हुई है। हिंदी न सिर्फ भारतीय मंडल अपितु समूचे भूमंडल की एक प्रमुख भाषा के रूप में उभरी है। यह हकीकत है कि नब्बे के दशक में विश्व बाजार व्यवस्था के तहत बहुप्रचारित उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण की प्रकृति से भारत अछूता नहीं रह सकता था। देर–सबेर उसे भी वैश्विक मंडी में खड़ा होना ही था। जाहिर है इस वैश्वीकरण ने जहाँ एक तरफ मुक्त बाजार की दलीलें पेश की, वहीं दूसरी तरफ दुनिया में एक नई उपभोक्ता संस्कृति को जन्म दिया, जिससे जनजीवन से जुड़ी वस्तुएं ही नहीं, भाषा, विचार, संस्कृति, कला सब–कुछ को एक ‘कमोडिटी’ के तौर पर देखने की प्रवृत्ति विकसित हुई। भाषा के रूप में निश्चय ही इस नवउपनिवेशवादी व्यवस्था ने राष्ट्रों की प्रतिनिधि भाषाओं को चुना। बहुभाषिक समाज व्यवस्था वाले भारत में हिंदी चूँकि संपर्क और व्यवहार की प्रधान भाषा थी इसलिए हिंदी को वैश्विक बाजार ने अपनाया। यहाँ वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप हिंदी के विकास–विस्तार पर जाने से पूर्व वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बारे में...

जिस्म की तेरे तारीफ़ करूँ तो सदियाँ गुजर जाय

जिस्म की तेरे तारीफ़ करूँ तो सदियाँ गुजर जाय दो दो शब्दों में भी पूरा गजल बन जाय  दो शब्द तेरी काली आखों पर लिखूं  दो शब्द तेरे सुलझे बालों पर लिखूं  तेरी मुस्कान पर जब लिखूं तो पूरी पंक्तियाँ कम पड़ जाय || तेरे मुस्कान से उतरकर अदाओं पर लिखू तो  तेरे सुलझे जुल्फों के छोर पर ये बिखरें नजर उलझ जाय  तेरे उलझे नज़रों पर लिखना शुरू करूँ तो  ये दिल तेरे आँखों की गहराइयों में डूब जाय || कुछ शब्द तेरे गुलाबी गालों को दूं  कुछ शब्द तेरे माथे के सुनहरे सिलवटों को अभी तक नजर, तेरे चाँद से चहरे पर टिकी रही  जब करवट लेती तेरी अदाओं पर उतरू तो  तो पूरा का पूरा दिल फिसल जाय || तेरे जिस्म की तारीफ में दर-बदर शब्द भी गुम हो जाय  जिस्म तो एक जरिया है तेरे लब्जों के सहारे दिल तक पहुँचने का  कभी फुर्सत हो तो नजरों के सहारे ही सही  मेरे आँखों में झाककर दिल की बैचेनी को समझना  इस बेचैन धड़कन को देखकर पत्थर दिल भी न पिघल जाय तो कहना || कभी अहसासों को जिस्म से इतर दिल की धडकनों में सुनना  पल दो प...